सुबह साढ़े छह का वक्त होगा।13 दिसंबर यानी शनिवार का दिन। पटना जक्शन पर हावड़ा राजधानी रुकी। स्टेशन से बाहर निकलते ही चहल-पहल ने इसका अहसास तो करा दिया कि आराम का कोई दिन नहीं है। लेकिन, बाहर पार्किग में खडी गाड़ियों की कतारो में कमोवेश हर गाड़ी के साथ कोई न कोई बंदूकधारी या खाकीधारी सरीखे सुरक्षाकर्मी को देखकर यह सवाल दिमाग में घुमड़ गया कि ऐसी कौन सी सुरक्षा की जरुरत है ?तभी मुझे लेने पहुंचे ड्राइवर ने मुझसे दस रुपये मांगे और अपने साथ आये सुरक्षाधारी को नोट थमाते हुये कहा कि आप टेंपू से घर लौट जाओ। ड्राइवर का नाम तकदीर था, जो मुझे पटना किताब मेले में ले जाने के लिए पहुंचा था। मैंने तकदीर से कहा, आप उसे भी गाड़ी में बैठा लीजिये। जगह तो काफी है। तकदीर का जवाब था अब तो पौ फट गयी है....सो कोई डर नहीं। डर... किसका डर ? तकदीर का जबाब था, राजधानी के पहुंचने का वक्त सुबह पौने पांच का है। उस वक्त अंधेरा रहता है। अकेले गाड़ी ले जाना ठीक नहीं होता । तो गार्ड को भी गाड़ी में साथ ही ले आये ।
जाहिर है, मेरी आंखों के सामने स्टेशन की पार्किंग का वह दृश्य घुमड़ गया, जहां जितनी प्राइवेट गाडियां थीं, उतने की बंदूकधारी। वाक्या खत्म होता, उससे पहले ही स्टेशन चौक की धमाचौकड़ी ने घेर लिया। एक तरफ से प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के लाउड स्पीकर से पूजा की गूंज तो कई दूसरी दिशाओं से ट्रैफिक पुलिस की सीटी..बस का हार्न..रिक्शा और टेंपू के झगडे..हंगामा। सबकुछ। लगा ही नही कि सुबह का वक्त है। कोई शख्स ऐसा नही दिखा जिसको देख यह एहसास हो कि अभी तो सुबह शुरु भी नही हुई है। उबासी..जम्हाई के बदले तल्खी और तेवर का जो सुरुर हर व्यक्ति में नजर आ रहा था...उसने एक झटके में मेरे आराम करने की सोच को धराशाई कर दिया।मैं सोच रहा था कि होटल पहुंच कर कुछ आराम कर लूंगा और दस बजे के बाद शहर में निकलूंगा। पत्नी और बच्चों को पटना दर्शन कराऊंगा, जो पहली बार पटना आये हैं। लेकिन स्टेशन से होटल पहुंचते पहुंचते लगने लगा कि पटना की बैचेनी बदल चुकी है। दो दशक पहले की कई यादें मेरे दिमाग में कौंधने लगी। उस समय राजेन्द्रनगर से गांधी मैदान तक सुबह सुबह कभी कभी जॉगिंग करने तो नही, पर टहलते हुये यूं ही आना जरुर होता था। लेकिन तब गांधी मैदान हरा भरा दिखायी लगता। चाय की चुस्कियों के साथ गांधी मैदान के भीतर बाहर बहस-चर्चा में एक गर्मी दिखायी देती जो अंदर की बैचेनी को बाहर लाती। राजनीति को लेकर सवाल खड़ा करना और आंदोलनों की सही राह को लेकर आंदोलनकर्मियों को मान्यता देते हुये सीख का पाठ पढ़ाने का तरीका कुछ इस ऐसा होता कि बहस-चर्चा में एक गुंजाइश हमेशा बरकरार रहती।चहल पहल या कहें गाड़ी से दिखायी दे रही भीड-भडक्का ने मेरी सारी खुमारी तोड़ डाली और होटल में सामान पटक कर मैं भी अपनी यादों में पर लगाने परिवार के साथ तुरंत सड़क पर आ गया । सूबह साढे आठ बजे का वक्त और होटल मौर्या से पैदल ही गोलघर चल पड़ा। कोई टिकट नहीं है के जबाब ने बच्चो को चौंकाया लेकिन सीढियों की हालत ने तुरंत बच्चो के गणित और अर्थव्यवस्था के तार झटका दिये कि टिकट लेकर मिलने वाले पैसे से कुछ तो ठीक हो सकता है। लेकिन मेरी नज़र गोलघर के ठीक नीचे की उस जमीन पर पड़ी, जहा कूडे का ढेर था और अगल-बगल के हम कुछ लोगों का खुला पखानाघर या कहे अटैच बाथरुम।दरअसल, 1985-88 के दौर में यहां नुक्कड नाटक की ट्रेनिंग होती थी। कई संगठन सुबह या शाम को यहां जमा होते और नुक्कड नाटक के जरिये विचारधारा को राजनीतिक लेप चढाकर अपनी बैचेनी को रीलिज करते। मैं खुद सालों साल तक गोलघर से सटे इसी मैदान में अपने नौ या दस साथियों के साथ नुक्कड नाटक की प्रैक्टिस करता था। उस दौर में नुक्कड़ नाटक और रंगमंच के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती ही थी, लेकिन अक्सर राजनीति को आईना दिखाने की प्रतिस्पर्धा कहीं ज्यादा होती। यानी नुक्कड़ नाटक में तत्कालीन राजनीतिक स्वार्थ पर किसी ना किसी दृश्य के जरिये चोट कर ही दी जाती थी, जिससे देखने वाले अपने अंदर की बैचेनी को नाटक से जोड़ते और वाहवाही मिलती।
अब वह मैदान छोटे से चबूतरे से लेकर शहरी डस्टबीन में बदला नजर आया। यकीकन मै हिम्मत नहीं जुटा सका कि बच्चों को बताऊ कि यहां थियेटर बनने का सपना कभी नुक्कड नाटक करने वाले देखा करते थे। मुझे पता है उनका अगला सवाल यही होता कि फिर बना क्यों नहीं। कौन नहीं चाहता । और इस तरह की गंदगी से बेहतर तो सिर्फ साफ मैदान रखना ही अच्छा होता। यह सवाल इसलिये आते क्योकि दिल्ली के जेएनयू में झाड़ और पहाड़ी के बीच एक खुला थियेटर मुनिस रजा ने बनवाया था। और मैंने बच्चों को जेएनयू दिखाते हुये यह जानकारी दी थी कि कुछ लड़के-लड़किया यहां नाटक की प्रैक्टिस करते थे। एक शाम टहलते हुये उस वक्त के वाइस चासंलर मुनिस रजा की नजर उन पर पड़ गयी और उन्होने उस जगह को उन्ही के मनमाफिक गढ़ दिया। तो गोलघर के मैदान पर सवाल उठाने का मतलब था राज्य के मुखिया पर सवाल उठाना क्योंकि बच्चे पूछते ही कि वीसी बड़ा होता है या मुख्यमंत्री। और अगला सवाल उठता कि वीसी कालेज में घूमता है तो मुख्समंत्री भी घूमता होगा। यह सब देख कर उन्हें क्या महसूस होता होगा।खैर गोलघर से दूसरी तरफ से उतरते ही गेट के ठीक सामने एक पेटी दिखायी दी जिसमें दान पेटी लिखा था। पता चला इस पेटी का गोलघर से इतना ही लेना देना कि आने वाले लोग इसमे कुछ डाले तो गोलघर से सटे मंदिर के पंडित का भला हो। पंडित रामनारायण जी से भी वास्ता पडा तो उन्होंने बताया कि कभी कभी कोई विदेशी पर्यटक आते हैं तो दानपेटी को देखकर करेंसी डाल देते है। फिर पंडित जी खुद ही बोले करेंसी डालने वाले विदेशियो को लगता है कि गोलघर ने कभी काल से निजात दिलवायी, अब गोलघर की जर्जर हालत में कुछ गोलघर का भी भला कर दें।कोहरे की बजह से गोलघर से गंगा नदी दिखायी दी नहीं तो गोलघर से दस रुपये में रिक्शा कर कलेक्ट्रियट घाट चल पड़े। गंगा किनारे की गंदगी को छट पूजा के वक्त कैसे निजात मिलती है, इसकी जानकारी बच्चो को देते हुये हम तुरंत कलेक्ट्रियट घाट भी पहुंच गये। लेकिन गंगा का पानी छू भी सके यह स्थिति घाट पर नही थी। हां, गंगा का पानी छूने के लिये जरुरी है कि आपका पांव कीचड से सराबोर हो। इस कीचड में कूडे-करकट का ऐसा मिलन कि, ये एहसास भी ना हो कि आप पानी छूने निकले हैं। हकीकत में छोटे छोटे गरीब बच्चों से लेकर कुत्ते-सूअर तक का ऐसा जमघट जो अपनी अपनी जिन्दगी की जरुरत के मुताबिक वहां फेंके पड़े ढेर में से कुछ चुन रहा है। किसी की फेंकी हुई चीज किसी दूसरे के लिये जिन्दगी कैसे होती है ये इस घाट पर पहुंच कर हर कोई महसूस कर सकता है। किसी को गंगा में पूजा करनी हो तो उसके लिये नाव चलती है, जो पूजा करने वाले को नदी के बीच में बने एक दियारा पर ले जाती है । वह जमीन घाट से दिखायी भी दे रही थी। नाव खेने वाले ने पूछने पर बताया कि वहीं साफ पानी है और जमीन भी साफ है। इसलिये हम वहीं ले जाते हैं, आप भी चल सकते है । लेकिन सफाई तो यहां भी हो सकती है , वह क्यों नहीं। इस पर मल्लाह ने ठहाका लगा कर कहा, हुजूर यहां सरकार है, वहां किसी की सरकार नही है। तो गंगा के दर्शन वहीं से कर हम लौट पड़े।
किताब मेला के कार्यक्रम में जाने से पहले मैंने सोचा जिस कालेज से मैंने ग्रेजुएशन की पढायी की वह तो बच्चों को दिखा दूं और अपनी स्मृति ताजा कर लूं। बीएन कॉलेज का मुख्य गेट बदल चुका था। अशोक राजपथ पर जिस जगह मुख्य गेट बना था अस्सी के दशक में वहा दीवार तोड़ कर कॉलेज में घुसने के लिये शार्टकट रास्ता बनाया गया था, जो सुराख वक्त के साथ बड़ा हुआ तो साइकिल भी उसी सुराख से अंदर जाने लगी। लेकिन यही सुराख मुख्य द्वार में बदल जायेगा य़ह कभी दिमाग में आया नही। लेकिन कॉलेज में घुसते ही वैचारिक सुराख भी नजर आया। सामने दीवार पर लिखा था, राज ठाकरे को फांसी दो-आइसा। मुझे याद आ गया जब 80 के शुरुआत में ही पटना यूनिवर्सिटी में जातीय हिंसा का रंग चढा तो एक के बाद एक कर छह छात्रों की हत्याएं हुईं । लेकिन बीएन कॉलेज के किसी लड़के को किसी ने हाथ लगाने की हिम्मत नही दिखायी। दो वजहें तो मैं जानता हूं । पहली, बीएन कालेज में छात्रों की गजब की एकजुटता थी। जिसे जातीय आधार पर बांटने की कोशिश कई बार हुई लेकिन बीएन कालेज हर बार भारी पड़ा और दूसरा, बीएन कालेज के छात्रों ने कभी वैसे नेता को तरजीह नही दी या उसके खिलाफ भी नही हुए, जिसके साथ खड़े होने या विरोध करने से उसे मान्यता मिलती। राज ठाकरे की सोच को कैसे राजनीति के जरिये साधा जा सकता है, यह अपनी जमीनी राजनीति के आसरे बात करने का हुनुर बीएन कालेज ने 1955 के छात्र आंदोलन से सिखाया। छात्रो से बातचीत में इसका एहसास तो हुआ कि छात्र मराठी मानुष की राजनीति कर नेता बने राज टाकरे से दो दो हाथ करने तक को तैयार है। लेकिन बिहार की राजनीति के अमर-अकबर-एंथोनी यानी पासवान-लालू-नीतिश की फिल्मी राजनीति से तंग है। यह जुमला बीएन कालेज के ही एक छात्र ने दिया। लेकिन जब सवाल बिहार के नेताओं की राजनीति के आसरे ही राजठाकरे की बनी राजनीतिक जमीन का सवाल उठा तो छात्रों ने माना की विकल्प गायब है। बीएन कालेज में कभी भी विकल्प की कमी महसूस नही की हुई। यानी जो स्थितियां जीने में हौसला देती हैं, वही इस बार बीएन कालेज में टूटी सी नजर आयीं।मुझे याद आया पहली बार पटना से चुनाव लड़ने मैदान में उतरे डॉक्टर सी पी ठाकुर को भी अपनी जीत के लिये बीएन कालेज के बाहुबल और वैचारिक समझ का आसरा लेना पड़ा था । उनके भाषण कॉलेज हॉस्टल में ही लिखे जाते और जीप में भर भर के प्रचार करने लड़के भी बीएन कॉलेज से ही निकलते । राजनीतिशास्त्र के किसी प्रोफेसर से मुलाकात की सोच स्टाफ रुम की तरफ कदम बढाये तो पता चला अभी कोई प्रोफेसर पहुंचा नहीं है । ग्यारह बजने को थे । साढे ग्यारह से पहले कोई नही मिलेगा। एक बाबू ने जानकारी दी। बच्चों को साइकिल स्टैड दिखाने ले गये। वही एक जगह थी जो जस की तस । वैसे ही साइकिलों की भरमार। हां दीवारो पर हरी काई खासी ज्यादा जमी थी। मकड़ी के जाले और कुत्तों का बसेरा कुछ ज्यादा था। कॉलेज में पढ़ने आने वालो छात्रों की आर्थिक गवाही साइकिल स्टैंड दे रहा था। बेटे ने तस्वीर उतारी तो कुछ छात्रो ने कुछ धुंधले तरीके से मुझे पहचाना...कॉलेज के हालात का रोना रोया लेकिन हर आंखो में पहली बार मुझे बेबसी दिखी जो इंतजार कर रही थी कि कोई तो कुछ बदलेगा। मुझे लगा बीएन कॉलेज ने कभी दूसरो के कंधो पर टेक नही लगायी कि वह खुद कुछ नही कर सकता। मुझे लगा अमर-अकबर-एंथोनी की राजनीति ने पंगू बनाया है , भरोसा तोड़ा..डिगाया है।
(जारी.......) -पुण्य प्रसून बाजपेयी
शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008
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