गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

हिन्दुस्तान नहीं, मुंबई मेरी जान..

कल तक जो लोग ज़िन्दगी के जज्बे के आसरे समूचे समाज को आगे ले जाने का जज्बा देते थे, वही आज बहुत हो चुका का सवाल क्यों खडा कर रहे हैं? मुंबई में 1993 के सीरियल ब्लास्ट से लेकर दो साल पहले शहर में उतरे पानी और लोकल ट्रेनों के विस्फोट ने कभी मुंबई की थकी-चुकी जुबान को उभरने नही दिया। हर बार चकाचौंध रोशनी के बीच से कई चेहरे उभर कर आये और कहा, शहर के ज़ख्म शहर को रोक नही सकते है। हर हाथ ने दूसरे का हाथ थामा।लेकिन ताज और ओबेराय होटल पर हमलों के बाद ही ऐसा क्या हुआ, जिसने समूचे देश को हिलाकर रख दिया है। जबकि, ताज-ओबेराय-नरीमन हाउस-कैफे पर हुये हमले में मरने वालो की संख्या पानी में डूब कर मरनेवाले और लोकल सीरियल ब्लास्ट में मरने वालों से कम है। मगर मुंबई की चकाचौंध रोशनी के बीच से अब जो चेहरे सामने आ रहे हैं, वह डरे-सहमे हैं। उन्हे भरोसा ही नहीं हो रहा है कि पैसे की ताकत को भी आंतक के सामने जिन्दगी के लिये वैसे ही गुहार लगानी पड़ेगी, जैसी कोई आम भारतीय गुहार लगाता है। जबकि, मुंबई का सच आंतक से भागने का नहीं आंतक के करीब जाना है।मुंबईकर को मुंबई एक ऐसा सपना बेचती है, जिसमे वह अपनी जड़ों की तरफ जब भी लौटे तो उसका सीना चौड़ा हो। नज़रें उठी हुई हों। यानी जिन छोटे-छोटे शहरों से , गांवों से लोग-बाग मुंबई में दशकों से हैं, उनके लिये मुंबईकर होना उस सुनहरे गीत की तरह है, जिसकी धुन पाईडपाइपर की धुन से ज्यादा सुरीली है। कोई मुंबईकर जब अपने पैतृक घर लौटता है तो उसके साथ मुबंई की वे कहानियां होती हैं,जिसे महज सूंघने के लिये ही समूचा गांव-घर सर आंखों पर बैठा कर रखता है। इसलिये मुंबई का पानी त्रासदी नही बनता, जैसे कोसी का पानी जिन्दगी लीलने वाला बन जाता है । सीरियल ब्लास्ट उसके लिये आंतक का साया नही बनता बल्कि सपनों के शहर में एक और रंगीन सपना बन कर उभरता है। क्योंकि, बहुसंख्यक मुंबईकर को इसका एहसास है कि अगर उसने अपने घाव दिखाये या उसमे भरे मवाद का ज़िक्र भी किया तो वह कभी न रुकने वाले मुबंई में टिक नहीं पायेगा। और ना ही उसके सपनों के खरीदार उसकी जडो में मिलेंगे, जहा से उसे असल रुआब मिलता है। जो उसे अपने समाज में ताज-ओबेराय वाली सामाजिक मान्यता दिलाती है।दरअसल ताज-ओबेराय वाली सामाजिक मान्यता दिलानी वाली मुंबई में कभी ताज-ओबेराय पर भी हमला होगा यह किसी मुंबईकर ने कभी सोचा नही होगा । यह ठीक वैसे ही है जैसे फलदार पेड़ों की जड़ें कितनी भी बदसूरत हों, लेकिन फल रसीला देती है । इसलिये उनकी जड़ों को भी सहेज कर रखा जाता है। लेकिन रसीले फल की जगह अगर बदसूरत जड़ें ही निकल पड़ें तो जड़ों को कौन सहेजना चाहेगा। जाहिर है डरे और खौफजदा चेहरों को इसी बात का डर है कि उनके तरीके और आम आदमी के तरीके एक से कैसे हो सकते हैं। लगातार देश को दो चेहरों में बांटकर देश चलाने का नजरिया भी इसी लिये निशाने पर है। निशाने पर राजनीतिक नैतिकता और जिम्मेदारी का सवाल है तो कई सवाल एकसाथ खडे हुये है।मसलन संसदीय राजनीति को खारिज करने के लिये पहली बार वह तबका सामने आया है, जिसने दो चेहरे बनाने की राजनीति को ना सिर्फ जमकर हवा दी बल्कि खुल्लम-खुल्ला साथ दिया। 1903 में ताज होटल का सपना संजोने वाले जमशेदजी टाटा दुनिया के सामने औघोगिक भारत की एक चकाचौघ तस्वीर रखना चाहते थे। सौ साल बाद दुनिया की चकाचौंध के सामने नतमस्तक होकर भारत अपना सबकुछ बेचने को तैयार खड़ा है। जब ताज का सपना बुना जा रहा था तब देश को बनाने का सपना भी संजोया जा रहा था। आज जब ताज बारुद से धू-धू कर जला है तो देश को राजनीति और चकाचौंध की रोशनी धू-धू कर जला रही है। समूचे देश के बीच ताज-ओबेराय की भौगोलिक स्थिति दशमलव शून्य सरीखी होगी । लेकिन आधुनिक पहचान के तौर पर यह उस सौ फीसदी पर भारी है, जिनकी देश में तादाद पांच से सात फीसदी होगी।लेकिन इस पांच से सात फीसदी के घेरे में आने के लिये जिस तरह देश के साठ-सत्तर फीसदी लोग बैचैन हैं और उनकी बैचेनी के पीछे जो राजनीतिक समझ बनायी गयी है, पहली बार वे दोनो आमने सामने खड़ी हैं। इसलिये बैचेनी दिखायी दे रही है । यह बैचेनी संसद पर हमले से लेकर दो महिने पहले दिल्ली में हुये धमाको के दौरान नही उभरी। यह बेचैनी उन आर्थिक नीतियों के फेल होने से नही उभरीं, जिसके लागू होने के बाद से देश के पचास हजार किसानो ने आत्महत्या कर ली। ये बेचैनी साप्रदायिक और अलगाववादी राजनीतिक हिसां के दौरान नहीं उभरी जिसने कश्मीर से कन्याकुमारी और मुंबई से गुवाहाटी तक में आग लगायी । बीते आठ साल में सौ से ज्यादा घटनाओ में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गये। तब भी बेचैनी नहीं जागी।हर बार समाधान की चाबी उस राजनीति के ही भरोसे रखी गयी, जिसने लोकतंत्र को ही हाशिये पर ढकेलने में गुरेज नही किया। जो चेहरे डरे-सहमे से आंतक के खिलाफ खड़े हैं, उन्ही चेहरों ने मराठीमानुस की अलगाववादी हिंसा के आगे घुटने भी टेके। बेचैनी से ज्यादा सुकून था उन्हीं चेहरो पर क्योंकि जो शिकार हो रहे थे उससे ताज-ओबेराय पर दाग लग सकता है। इस संस्कृति को सभी सहेज कर रखना चाहते थे । यह चकाचौंध बरकरार रहे । पांच सितारा संस्कृति पर आंच नहीं आये। उसके लिये राजनीति का निशाना जिस गोली से साधा जा रहा है, वह भी गौर करना होगा और भविष्य की दिशा क्या हो सकती है यह भी समझना होगा।राजनीति को उकसाया जा रहा है सुरक्षाकर्मियों के भरोसे । देश में मिलेट्री शासन नही लोकतंत्र है , यह कहने की जरुरत नही है। लेकिन लोकतंत्र सुरक्षा घेरे में चल रहा है यह समझने की जरुरत जरुर है। देश में मौजूद पुलिसकर्मियों में से तीस फीसदी पुलिस वालो का काम वीआईपी सुरक्षा देखना है। यानी उन नेताओं की सुरक्षा करना जिन्हें जनता ने चुना है। दिल्ली में यह पचपन फीसदी है, और मुबंई में सैतिस फीसदी। महाराष्ट् में ओसतन एक पुलिसकर्मी पर महिने में उसकी पगार समेत ट्रेनिग और तमाम सुविधाओ समेत पन्द्रह हजार रुपये खर्च किये जाते है। यह रकम उतनी ही है, जितने में ताज-ओबेराय में एक वक्त एक छोटा परिवार खाना खा ले। साल भर में जितनी रकम महाराष्ट्र के समूचे पुलिस महकमे पर खर्च होती है, उससे दुगुना से ज्यादा लाभ ताज होटल एक महिने में कमा लेता है। देश के साठ फीसदी पुलिसकर्मियों को ताज में सबसे कम पगार पाने वाले भी कम पगार मिलती है। सेना को तमाम सुविधाओ समेत औसतन जितना वेतन मिलता है, उससे ज्यादा वेतव ताज-ओबेराय में शेफ को मिलता है। जिस समय ताज-ओबेराय पर हमला हुआ उससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्मचारी-अधिकारियों से लेकर देसी उधोगों के अधिकारी और सरकारी नौकरशाह और सांसद से लेकर नेता तक फंसे थे।यह जगह उन चेहरो के लिये भी रोजमर्रा की सराय है, जो चकाचौंध रोशनी में नहाया हुआ है। इसलिये लहू कही ज्यादा खौफजदा है, क्योंकि उसके सराय पर हमला हुआ है । लेकिन नये दौर में यह सराय बरकरार रहे , इसके लिये संसदीय व्यवस्था ने वह तमीज भी छोड़ी है, जिसमें वह कभी कल्याणकारी हुआ करता था । ताज-ओबेराय का मतलब अगर विकसित देश होना है, तो नयी राजनीति का मतलब मुनाफे की थ्योरी के लागू करना है। मुनाफे से मतलब देश की तरक्की है। तरक्की से मतलब ताज में चाय की चुस्की के साथ अरब सागर के पानी को निहारना है। संसदीय राजनीति की ऐसी नीतियों पर टकराव ना हो इसलिये राजनीति के विकेन्द्रीकरण का ही परिणाम है कि देश में कुल सेना 37 लाख 89 हजार तीन सौ है तो राजनीति करने वाले चुने हुये नुमाइन्दों की तादाद 38 लाख 67 हजार 902 है । राजनेताओ की यह संख्या सिर्फ चुने हुये की है। सांसद से लेकर पंचायत और ग्राम पंचायत तक में चुनाव लड़ने वालों की तादाद का आकलन करे तो संख्या करोड़ पार कर जायेगी। दुनिया की किसी भी संस्था से सबसे ज्यादा रोजगार देनी वाली संस्था भारतीय राजनीति ही है।जाहिर है सत्ता के विकेन्द्रीकरण में राजनीति ने अपना बचाव जीने के दूसरे विकल्पों को खत्मकर अपने साथ खड़े लोगो को बढ़ाकर किया । तो इस राजनीति के कंधों पर सवार होकर ताज-ओबेराय ने अपनी चमक बढ़ायी। अब जब दोनो आमने सामने हैं तो उस भारत के बनने का इंतजार कीजिये, जिसमे सोने की चिड़िया की धुन सिर्फ मुंबई की न हो बल्कि हिन्दुस्तान की हो।
पुण्य प्रसून बाजपेयी

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