सुबह का वक्त है। आप न्यूज चैनलों में बार-बार झांक रहे है। आपको इंतजार है,चार महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव परिणामों का। किसके हक में जाते हैं ये राज्य। कांग्रेस या बीजेपी। दिल्ली में शीला दीक्षित दस साल बाद भी बनी रहेंगी या बीजेपी का ओल्ड इज गोल्ड चलेगा। यानी वीके मल्होत्रा का पत्ता चल गया। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में बीजेपी की सत्ता बरकरार रह पाएगी या नहीं। और इन सबके बीच मुंबई हमलों के दौरान दिल्ली और मध्यप्रदेश में वोटिंग हुई तो क्या उसका लाभ बीजेपी को मिल जायेगा। राजस्थान, जहां उस दौर में वोटिंग हुई, जब देश में नेताओं को लेकर गुस्सा था और अर्से बाद वहा बड़ी तादाद में लोग वोट डालने निकल पड़े तो इसका मतलब क्या निकाला जाय। ये लोगों में आक्रोष सरकार के खिलाफ है। बीजेपी आंतकवाद को लेकर जीरो टौलेरेन्स के पक्ष में है या फिर बीजेपी आंतकवाद को लेकर फिर जिस तरह चुनाव प्रचार करने लगी, उसके खिलाफ लोग वोट देने निकल पड़े। ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके आधार पर न्यूज चैनल सुबह से ही सीटों के परिणाम के साथ विश्लेषण शुरु कर देंगे।
जाहिर है संसदीय व्यवस्था में लोकतंत्र का मतलब भी यही पैमाना है, जिसे न्यूज चैनल दिखा रहे होंगे। लेकिन आप याद कीजिये पिछले पिछले ढाई सौ घंटों में उन्हीं न्यूज चैनलों में क्या दिखाया जा रहा था और क्या कहा जा रहा था। जिस समय मुंबई का ताज-ओबेराय-कैफे आंतकवादी बारुद में धू-धू जल रहा था। गोलियों की आवाज में ताज के बाहर कबूतर फड़फड़ा कर उड़ रहे थे। उस दौर में मध्यप्रदेश में वोटिंग हुई। टीकमगढ़ के विधायक उम्मीदवार की हत्या कर दी गयी। लेकिन किसी न्यूज चैनल ने इस खबर को जरुरी नहीं समझा।मुंबई में जो-जिस तर्ज पर हो रहा था, उसमे जरुरी भी नही था कि इसे दिखाया-बताया जाए। यह 27 नवंबर की घटना है। उस दिन सुबह सुबह किसी न्यूज चैनल पर मध्यप्रदेश की वह तस्वीर नहीं उभरी, जिसमें वोट डालने के लिये लंबी-लंबी कतारें दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र होने का ऐलान करतीं। जो तस्वीर न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर थी, वह ताज की थी। आंतक के साये के बावजूद पहली बार देश के हर अदने व्यक्ति ने ताज की खूबसूरती देखी। हर न्यूज चैनल के कैमरे ताज-ओबेराय पर ही टिके थे।ये दिन दिल्ली में चुनाव प्रचार का भी आखिरी दिन था। यहां किसी नेता में इतनी हिम्मत नही थी कि वह दिल्ली की सडकों पर रैली कर ले। दिल्ली में 27 नवबंर को सोनिया गांधी-राहुल गांधी-लालकृष्ण आडवाणी से लेकर राजनाथ सिंह, मायावती,नरेन्द्र मोदी समेत देश के एक दर्जन उन बड़े नेताओं की रैली-भाषण होने थे, जो हमेशा देश की कमान सभालने के लिये सत्ता की जोड़तोड़ में भिड़े रहते हैं। लेकिन मुंबई हमलो की जो तस्वीर टीवी स्क्रीन पर रेंग रही थी उसमे हर नेता के सामने यही सवाल रेंग रहा होगा कि अगर जनता के बीच गये और वोटर ने मुंबई आंतक का गुस्सा कहीं उस रैली में निकाल दिया तो क्या होगा। खामोश नेता रहे । ये खामोशी 29 नवंबर को दिल्ली में वोटिंग के दौरान भी बरकार रही। मुंबई में गोलियों का शोर इस दिन थम चुका था लेकिन राजनेताओ के खिलाफ आग जोर पकड़ने लगी थी। न्यूज चैनलो में दिल्ली में वोटिग की लंबी लंबी कतारो की जगह मुंबई के शहीदो की जलती चिताओ की तस्वीर रेंग रही थी । हर तस्वीर के साथ न्यूज चैनल यह सवाल भी कडा कर थे कि सत्ता के लिये गठबंधन और आंतकवाद जैसे मुद्दे पर राजनीतिक असहमति का मतलब है क्या । पहली बार देश के नुक्कड-बाजार की जगह सुरक्षित पांच सितारा मिजाज पर आंतकवाद की गोलिया बरसी थीं तो उस घेरे में रहने वाला तबका और उस घेरे में घुसने के लिये बैचेन तबके के सामने सबसे बडा सवाल यही रेंग रहा था कि अब कहां जाएं।
वैसे, यह तबका वोट डालने से परहेज करता है। हालांकि विज्ञापनो में यही तबका वोट डालने के लिये प्रोत्साहित करता भी नजर आ जाता है। देश की राजनीति में इस समुदाय का कोई नेता नहीं होता बल्कि सरकार ही इस तबके की होती है। नीतियों को इसी तबके के अनुकुल बना कर विकास का समूचा खांचा बनाया जाता है। इसलिये वोटबैक के रुप में इस तबके को देखा भी नही जाता। पहली बार इसका मलाल भी इस तबके में उभरा कि उसकी सुविधाओं पर कोई आंच ना आये, इसे तो सरकार समझती है, लेकिन आतंकवाद ने वोट बैक की राजनीति से परे तबके की जमीन पर हमला क्यों कर दिया, जबकि इससे देश के राजनीतिक अंतर्रविरोध का लाभ आंतकवादियों को नहीं मिलता।राजनीति और चुनाव से इतर न्यूज चैनलों के लिये यह एक ऐसे सवाल के तौर पर भी उभरा, जहां टीआरपी की लड़ाई राजनीति और पांच सितारा तबके को दिखाने की थी। पांच सितार समूह का आक्रोष और उसके इर्द-गिर्द वह मध्यम वर्ग जो भविष्य के लिये सबकुछ संजो कर रख लेना चाहता है और सपने में खुद को पांच सितारा के बीच पाता है, उसके सड़क पर उतरने से वही राजनीति लपेटे में आ गयी जो चुनाव को देश का सबसे बडा उत्सव करार देकर लोकतंत्र का झंडा उठाती है। न्यूज चैनल या कहें मीडिया इसी वक्त अपनी शक्ति का एहसास कराती है। क्योकि संवाद के लिये एकमात्र माध्यम वही होता है। और मुनाफे का बिजनेस करने की उसकी मजबूरी भी यहीं छिप जाती है, क्योंकि न्यूज चैनल का मुनाफा जनवादी रुप ले लेता है।इसालिये जो सवाल ताज-ओबेराय से टकरकर सड़क पर उतरे हैं, उसने चुनावी लोकतंत्र की गाथा पर ही सवालिया निशान लगा दिया। लेकिन राजनीति से टकराव का चेहरा न्यूज चैनल से हटकर विकल्प के तौर पर व्यवस्था के सामने कैसे खड़ा हो सकता है, यह सोच पांच सितारा ने अभी तक तो परोसी नहीं और मीडिया ने खुद को भोंपू मान लिया है तो उसकी समझ का दायरा हर उस किलकारी में गूंजेगा जो देखने वालो के अंदर सनसनाहट पैदा कर सके। रोमानीपन पैदा कर सके । भावनाओं में उछाल ला सके। एक डर-खौफ को जिला सके। यह सब मुंबई हमले के दौरान मौजूद था, तो मीडिया ने दिखाया । मंडल मसीहा वीपी सिंह की मौत की खबर भी न्यूज चैनलों के पर्दे पर ना आ सकी।मुंबई आंतक के बाद के ढाई सौ घंटो में राजनीति की खबर अगर न्यूज चैनलों के पर्दे पर उभरी तो वह महाराष्ट्र के उस मुख्यमंत्री को मजा चखाने के लिये जो ताज को पिकनिक स्पॉट मान कर चहलकदमी करने निकला या फिर उस उपमुख्यमंत्री को जिसने आंतक के जख्म को खुजली मान लिया। लेकिन अब जब आप न्यूज चैनलों के सामने बैठ कर राज्यों के चुनाव परिणाम जानने के लिये बैठे हैं, तो बीते ढाई सौ घंटे के विरोध और आक्रोष का मतलब क्या है। जिस राजनीति पर बहुत हुआ यानी "एऩफ इज एनफ" या "ऐलान-ए-जंग" कहते हुये न्यूज चैनलों ने मुबंई के घाव पर मलहम लगाया, आज जब वही न्यूज चैनल चुनाव में नेताओ की जीत के जरिये लोकतंत्र के गीत गाएंगे तो क्या यह कहा जा सकता है कि न्यूज चैनल आतंक के घाव पर मलहम नहीं नमक छिड़क रहे हैं। यह कैसे संभव है कि जिस राजनीति को सिरे से खारिज करने के लिये हर शहर में लोग एकजूट हुये और अपने हर दर्द को मुंबई आतंक से जोड़ा वह आक्रोष चुनाव परिणाम के साथ थम गया। और न्यूज चैनल ने जिस बहादुरी के साथ आंतक के हर मिनट्स को कैमरे में पकड़ा और देश को इस भरोसे में लिया कि वह लोगो के आक्रोष के साथ खड़ा है,क्या वही न्यूज मीडिया संसदीय लोकतंत्र का गीत गा कर आक्रोष को ठंडा करेगा। क्या फिर से न्यूज चैनलों पर नेताओ के भाषण, उनकी कुर्सी,मुद्दों को लेकर रटे रटे डायलॉग सुनाये जायेगे । और बोरियत होने पर राजू श्रीवास्तव सरीखा हास्य-व्यंग्य करने वाला कोई भी कार्यक्रम ताज-ओबेराय पर हुये हमले को व्यंग्य की विधा के साथ परोसेगा। न्यूज चैनल देखने वाले वही लोग हंसी-ठिठोली में खो जायेंगे, जो सड़कों पर उतर कर व्यवस्था बदलने की मांग करने लगे थे। टीवी न्यूज चैनलों के जरिए अगर देश का सच समझना है तो यकीनन यही सब होगा।
अगर न्यूज चैनलो के जरिये राजनीतिक बदलाव के आंदोलन में पांच सितारा संस्कृति खुद को सफल मान रही है तो यकीकनन चुनाव परिणाम देखने के बाद वही हंसी-ठिठोली होना ही है, जो 26-11 से पहले हो रहा था, चल रहा था । और अगर कहीं वाकई लोगो के अंदर आग है , आक्रोष है, जिसे न्यूज चैनल दिखाने को बाध्य हुये तो यकीन जानिये आप सुबह न्यूज चैनलों पर चुनी हुई सरकार के नुमाइन्दों की जगह आम लोगो का जमघट देखेंगे, जो बताना चाहेंगे अब पांच साल इंतजार नहीं करेंगे।
शनिवार, 13 दिसंबर 2008
कहीं न्यूज चैनलों पर आक्रोष, बिजनेस तो नहीं
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